सम्पूर्ण राष्ट्र में हिन्दी की स्वीकार्यता पर विचारोत्तेजक परिसंवाद
मुंबई। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, मुंबई एवं ग्रामगीता महाविद्यालय, चिमूर के संयुक्त तत्वावधान में “हिन्दी की सम्पूर्ण देश में स्वीकार्यता की समस्याऍं और समाधान” विषय पर विचारोत्तेजक परिसंवाद का सफल आयोजन किया गया, जिसमें इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर महाविद्यालय के विद्यार्थियों का समुचित मार्गदर्शन किया गया।
महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा मनाये जा रहे हिन्दी महोत्सव के अंतर्गत आयोजित इस परिसंवाद की अध्यक्षता ग्रामगीता महाविद्यालय, चिमूर के प्राचार्य डॉ अमीर धमानी ने राष्ट्र संत तुकडोजी महाराज महाविद्यालय ,चिमूर के प्राचार्य डॉ अश्विन चंदेल की प्रमुख उपस्थिति में की। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के अशासकीय सदस्य और सिंदेवाही महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. विजेंद बत्रा को इस परिसंवाद में प्रमुख मार्गदर्शक के रूप में आमंत्रित किया गया। परिसंवाद का उदघाटन राष्ट्र संत तुकडोजी महाराज की प्रतिमा पर माल्यार्पण और दीप प्रज्ज्वलन के साथ किया गया। कार्यक्रम की प्रस्तावना राष्ट्र संत तुकडोजी महाविद्यालय के उप प्राचार्य डॉ. प्रफुल्ल बंसोड ने रखी। प्राचार्य डॉ अश्विन चंदेल और डॉ. विजेंद्र बत्रा का शॉल एवं श्रीगणेश की मूर्ति भेंट कर सत्कार किया गया। डॉ. चंदेल ने अपने सम्बोधन में कहा कि जिस समय महाविद्यालय या विश्वविद्यालय का खेल समूह मध्य प्रदेश से जम्मू कश्मीर तक खेल प्रतियोगिता में भाग लेने जाता है, तो खिलाड़ियों और प्रबंधकों को संवाद स्थापित करने में कोई समस्या नहीं आती, परंतु जब वही समूह दक्षिणी राज्यों में जाता है, तो परस्पर संवाद की विकट समस्या सामने आती है। परिसंवाद के प्रमुख मार्गदर्शक डॉ. विजेंद्र बत्रा ने सभी विद्यार्थियों का समुचित मार्गदर्शन करते हुए कहा कि यदि संस्कृत को नानी, हिन्दी को माॅं या बड़ी बहन एवं प्रादेशिक भाषाओं को छोटी बहनें मानकर सभी भाषाओं का सम्मान एवं यथोचित प्रयोग किया जाये, तो भाषाई समस्या का समाधान खोजना सरल हो जायेगा। उन्होंने हिन्दी को माँ गंगा की तरह बताते हुए कहा कि उसमें मराठी, भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी, पहाड़ी, पंजाबी और मैथिली भाषाओं का प्रवाह निरंतर बहती सरिता के रूप में मिलता है। तब हिन्दी की मध्य से उत्तरी और पूर्वी से पश्चिमी भाग में स्वीकार्यता बढ़ जाती है, किंतु दक्षिण भारत की भाषाओं का प्रयोग करने वाले हिन्दी को थोपी हुई भाषा कहते हैं और हिंदी की स्वीकार्यता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसलिये हम जैसे हिन्दी भाषायी लोगों को महाविद्यालय स्तर पर तमिल, तेलगु, कन्नड़ या मलयालम में से कम से कम एक भाषा का ऐच्छिक विषय के रूप में अध्ययन कर दक्षिणी और शेष भारत में संवाद सेतु का कार्य करना चाहिये। साथ ही सरकार को कानून, चिकित्सा, व्यापार और अभियांत्रिकी जैसे विषयों सम्बंधी किताबें, साॅफ्टवेअर, ऑडिओ विजुअल हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध करवाकर हिन्दी में उन पाठयक्रमों की शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिये, जिससे आगामी वर्षो में अंग्रेज़ी का महत्व क्रमिक रूप से कम किया जा सके। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा प्रणाली के आगमन के साथ ही आगामी दस वर्षों में पूरे देश में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाकर राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया जाना अनिवार्य है। डॉ. अमीर धमानी ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में मातृभाषा, राजभाषा एवं अंग्रेज़ी में संतुलित ज्ञान अर्जन की आवश्यकता को प्रतिपादित किया। उन्होंने विद्यार्थियों को हिन्दी का ज्ञान बढाकर पूरे देश में रोजगार के अवसर प्राप्त करने का आव्हान किया। उन्होंने कहा कि ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थी जिस समय शहरी क्षेत्रों में जाते हैं, तो वहॉं का भाषायी ज्ञान कम होने पर निराश हो जाते हैं। परिसंवाद का संचालन बिजन कुमार शील ने तथा आभार प्रदर्शन सरताज मालधारी ने किया। इस परिसंवाद के सफल आयोजन में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के सह निदेशक एवं सचिव सचिन निंबालकर के मार्गदर्शन में नैक संयोजक डॉ. नितिन ठवकर, प्रा. हमेश्वर आनंदे और डॉ. युवराज बोधे ने सक्रिय भूमिका निभाई।