बेटी एवं प्रकृति बचाने का संदेश देती ‘म्हारी संजा‘
नारायणी मायाजी का मालवी की मीठी बोली का एक तिलस्मी ‘माया जाल‘
‘म्हारी संजा‘ नामक पुस्तक नारायणी मायाजी का मालवी की मीठी बोली में एक तिलस्मी ‘माया जाल‘ है। जिसके प्रथम पृष्ठ में प्रवेश करते ही पाठक अपने आप ही आनंद के चरम को अनुभव करते हुए अन्तिम पृष्ठ तक ‘फंसता‘ हुआ चला जाता है।
32 पृष्ठों की इस लधु पुस्तिका में गुड़-सी मीठी मालवी बोली में मालवा की संस्कृति से जुड़ी संजा उत्सव पर लेखिका द्वारा सलीके से प्रकाश डाला गया है। लेखिका मायाजी ने संजाबई के मालवी में ऐसे अनेक पारम्परिक गीतों की प्रस्तुति दी है, जिनको पढ़कर पाठकों को अपना बचपन यकायक स्मरण हो आता है। संजाबई के मधुर गीतों को पढ़ते-पढ़ते एक ओर जहां पाठक उन गीतों की मिठास में डूबता चला जाता है तो दूसरी ओर वह स्वयं के बालपन की कहानी को फ्लेसबैक में चलता हुआ भी महसूस करता है। जो पाठक को एक मधुर स्वप्न-सा अहसास कराता है।
पुस्तक में संजाबई बनाने से लेकर उसकी पूजा-आरती तक का विस्तृत विश्लेषण बताया गया है। पुस्तक पढ़ते के उपरान्त लगता है कि लेखिका ने पुस्तक लिखी नहीं है बल्कि स्वयं के बचपन को बहुत मस्ती के साथ जिया है। वे कहती हैं कि, ‘पुस्तक में म्हने सजाबई का म्हारा स्वरचित गीत भी लिखया है जो भाव की गेरई से रिसता में उतरे है। संजाबई म्हारे लिए जीवंत है। बेन बेटी का रूप में, म्हारी आत्मा में बसे है।‘
लेखिका बताती हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार संजा पर्व का महत्व भगवान शिव और माता पार्वती पर आधिारित है। ऐसी मान्यता भी है कि भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिए माता पार्वती ने संजापर्व की स्थापना की। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि संजाबई की पूजा-पाठ करने वाली कुआंरी कन्याओं को सुयोग्य वर मिलता है। ऐसी भी मान्यता है कि सांगानेर की राजकन्या संजा की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। बाबा महाकाल के आंगन में भी उमा-सांझी महोत्सव प्रतिवर्ष मनाया जाता है, जो संजा पर्व का ही रूप है।
अलग-अलग स्थानों पर इस पर्व को विभिन्न नामों से जाना जाता है यह भी बताया गया है। ब्रज में सांझी, राजस्थान में संजया, निमाड़ में संजा, महाराष्ट में गुलाबई और हरियाणा में सांझी। भाद्रपद की पूर्णिमा से शुरू होने वाला यह पर्व कन्याओं द्वारा सोलह श्राद्वों में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बेटी को बचाने, बेटी को संरक्षित करने का संदेश देती है, जो कि आत्मसात करने योग्य है। साथ ही यह प्रकृति के साथ रहने और उसे बचाने का भी संदेश देती है जिसकी आज नितांत आवश्यकता है।
कैसे कुआंरी कन्याएं संध्या बेला में घर के बाहर दीवार को लीपकर गोबर से सोलह दिनों तक अलग-अलग पारम्परिक आकृतियां बनाती है। कैसे वे उन आकृतियों को गुलाब, कनेर, चांदनी, गुलदाउदी एवं गुलदेवड़ी के फूलों से सजाती हैं एवं कैसे मीठे-मीठे गीत गाती है। पुस्तक में यह सब लेखिका किसी डाक्युमेंटी फिल्म की तरह बताती चली जाती हैं।
पुस्तक में लेखिका ने स्वरचित एवं पारम्परिक गीतों की सुंदर प्रस्तुति दी है। एक मीठे गीत की बानगी देखिए-
छोटी-सी गाड़ी रड़कती जाय, रड़कती जाय
नानी-सी गाड़ी रड़कती जाय, रड़कती जाय
जिमें बैठया संजाबई-संजाबई
घाघरों घमकाता जाय,
चूड़लो चमकाता जाय
चूदड़ी चलकाता जाय,
बईजी की नथनी झोला खाय, झोला खाय।
कुल मिलाकर यह लघु पुस्तिका संजा लोकोत्सव का एक लिखित दस्तावेज है। लेखिका ने बड़े परिश्रम और चाव से पुस्तक में संजा उत्सव के अनेक रंगीन चित्र समाहित किए हैं, जो संजाबई की झांकी से प्रतीत होते हैं और पुस्तक के आकर्षण में चार चांद लगाते हैं। मालवी बोली और मालवी संस्कृति के संरक्षण का संदेश देती इस पुस्तक का कवर पृष्ठ सुंदर और आकर्षक है। अंतिम पृष्ठ पर लेखिका माया मालवेंद्र बदेका जी का चित्रमयी परिचय है।
पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी त्रुटियां तो कही पर संझा गीतों की पुनरावृत्ति है, जो पाठक को अखरती है। अनेकानेक स्थानों पर कथनों का दोहराव भी मन को खलता है। इन सबके बावजूद यह कहा जा सकता है कि नन्ही बच्ची-सी यह लघु पुस्तिका न केवल मालवावासियों को बल्कि देश दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ है।
-राजेंद्र देवधरे‘दर्पण’